पर्यावरण परिवर्तन संरक्षण

पर्यावरण परिवर्तन एवं   संरक्षण
(ENVIRONMENTAL CHANGES AND CONSERVATION)

परिचय (INTRODUCTION)
                                              प्राकृतिक  पर्यावरण का निर्माण अजैव और जैव घटकों से हैं घटको में मानव सर्वाधिक महत्वपूर्ण  तत्त्व है जो अपने क्रिया - कलापों से पर्यावरण को सर्वाधिक प्रभावित करता है । यह पर्यावरण का नियंत्रक, संचालक , रूपान्तरक और विनाशक है ईंन क्रियाओ को  रूप देने में देने में वह खुद पर्यावरण द्वारा बदलता रहता है। अपनी क्षमता, आवश्यकता और भावना के द्द्वारा वह अपने परिवेश की व्याख्या का नियमन करता है ।
                                   अतः स्पष्ट है कीपर्यावरणऔर परिस्थितिक की कार्य प्रणाली की स्वनियमनव्यवस्था द्वारा संचालित होती है । पर्यावरण तत्त्व पारिस्थितिक का नियंत्रण कर जीवन विकास के लिए आवश्यक परिस्थितियों का  निर्माण करते है ।यह व्यवस्था तब तक चलती रहती है जब तक पर्यावरण में   संतुलन बना है अर्थात  पर्यावरण का तत्त्व  अपने गुण के अनुशार आपस में तथा जैविक घटक के साथ परस्पर क्रिया करते है, लेकिन जब भौतिक या मानवीय कारणों से पर्यावरण के किसी किसी तत्त्व को क्षति पहुंचती हैं तो वह पहले स्वनियमन अंतर्गत संतुलित होने का प्रयास है, लेकिन जब उसके सहन सीमा से अधिक आघात प्रभाव होता है तो उसका संतुलन बिगड़ने लगता है  लगातार जब पर्यावरण के तत्वों की अवमानना होने लगती है तो पर्यावरण में परिवर्तन होने लगता है, जो की पारिस्थितिक का संतुलन है, क्योंकि पारिस्थितिकी पर्यावरण के सहयोग से कार्य है ।  पर्यावरण के हास्य जीवन की गुणवत्ता घटने लगती है तो विकाश की सारी प्रक्रिया उल्टी दिशा में मुड़ने लगती हैं, जो अवनति का मार्ग प्रशश्त करती है ।

पर्यावरण परिवर्तन
       (ENVIRONMENTAL CHANGES)

अपनी उन्नति को सतत बनाये रखने के लिए आदिकाल से  आधुनिक काल तक मानव समाज ने विविध प्रयोग किये है । मुलभुत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भौतिक संसाधनों का इस क्रम में पर्यावरण के प्रति किये गए अमैत्रीपूर्ण कार्य या प्रदूषण, वन विनाश, अधिक जनभार, संसाधनों का अधिक दोहन आदि स्वनियमजन्य क्षमता से अधिक हो जाता है तो उसके फलस्वरूप पर्यावरण के के तत्त्व पंगु होने लगते है ।इसका इसका सीधा प्रभाव पारिस्थितिकी पर पड़ता है । पारिस्थितिकी के असंतुलन से पर्यावरण के हास्य का आभाव होता है। स्पष्ट है कि पर्यावरण के हास्य के लिए मानव सबसे बड़ा कारक है । उदाहरण के लिए वनों की अंधा-धुंध कटाई , प्रोद्योगिक विकास, नगरीकरण आवर बढ़ती जनसंख्या के कारण पर्यावरण प्रदूषण घातक अवस्था तक पहुंच गया है । प्रदूषण से पर्यावरण के तत्व , वायु , जल, मृदा आदि स्वाभाविक गुण खो जा रहे हैं।
                                             परिवर्तन मानव के ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी विकास पर आधारित रहा है। जब तक प्रकृति के सहयोग से मानव अपने आवश्यकताओं की आपूर्ति करता रहा है तब तक पर्यावरण पारिस्थितिक संतुलित रही है, लेकिन वर्तमान में बढ़ती जनसंख्या , बढ़ता भौतिकवाद, उच्च तकनीकी और प्रकृति के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार के कारण भौतिक प्रगति की गति को इतना तीव्र बना दिया है कि उस का दुप्रभाव पड़ने लगा है । इसके सम्बन्ध में आज सोचना जरूरी है।

 पर्यावरण परिवर्तन के प्रमुख कारण
(Main Causes of Environmental Changes)

पर्यावरण में होने वाली परिवर्तन मुख्यतः निम्नलिखित कारणों से होता है-
जनसँख्या वृद्धि - मानव जनसँख्या वृद्धि ही पर्यावरण में होने वाले परिवर्तनों का प्रमुख कारण होती है । हमें ज्ञात है कि पृथ्वी का भू -भाग एवं प्राकृतिक संसाधन एक सीमित मात्रा में उपलब्ध है । चूंकि प्रकृति संसाधन एक निश्चित मात्रा में ही उपलब्ध है अतः जनसँख्या में वृद्धि जारी रहती है तो इन संसाधनो का उपयोग एवं मांग बढ़ती है । मानव जनसँख्या में वृद्धि से पर्यावरण निम्न प्रभाव पड़ते है -
1. प्राकृतिक संसाधनों में कमी आना ।
2. खाद्य समस्या उत्पन्न होना ।
3. वनों पेट्रोलियम, कोयला जैसे ईंधन प्रदायक सामग्रियों का कमी होना ।
4. प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग पश्चात शेष व्यर्थ पदार्थो की मात्रा में वृद्धि से पर्यावरण प्रदूषित होता है।
5. पर्यावरण प्रदूषण के कारण पारिस्थितिक असंतुलन उत्पन्न हो जाना ।
6. कृषि एवं अवाशिय भूमि की कमी होना ।
उपरोक्त सभी कारणों से पर्यावरण में परिवर्तन होने की संभावनाएं बढ़ती जावेंगी ।

(2)परिवहन(Transport)
मनुष्य आवागमन एवं अपने उपयोग की संगरियो को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने के लिए वाहनों का उपयोग करता है इन वाहनों में ईंधन के रूप में डीजल , पेट्रोल आदि का उपयोग किया जता है । इनके जलने से वाहनों का चालान हेतु ऊर्जा मिलने के साथ-साथ बहुत सी प्रदूषक गैसें वायुमंडल में छोड़ी जाती है। ईन गैसों के कारण पर्यावरण परिवर्तन का दर में वृद्धि होती जाती है।

3. जल कर्यों पर अतिक्रमण - मानव जनसंख्या में लगातार वृद्धि होने के कारण आवास एवं अन्य कार्य हेतु भूमि की उपलब्धता कम होती जा रही। इसी कारन मनुष्य तालाबों,नदियों, झीलों, पोखरों जैसे जलकायों पर अतिक्रमण कर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने लगा है ।

4. कृषि भूमि पर अतिक्रमण - बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण उद्योगों की स्थापना, नगरीकरण,गृह,निर्माण आदि में बढ़ोतरी हो रही है । इन कार्यो हेतु कृषि भूमि का उपयोग किया जा रहा है । इससे पौधो की संख्या में कमी होती जा रहा ।

5. वन भूमि पर अतिक्रमण - वनो से हमारा पुराण और गहरा संबंध है, इनके बिना हमारा जीवन संभव नहीं है ।
वनो की कटाई से उत्पन्न होने वाले प्रमुख दुष्परिणाम निम्नलिखित है -
(i) वनो की कटाई से भूमि कटाव बढ़ जाता है, क्योंकि वर्षा का जल पृथ्वी पर सीधे गिरकर तेजी से बिना रुके बहता है उपजाऊ   सतह को बहा के ले जाता है ।
(ii) वनो की कटाई से वर्षा कम तथा अनियंत्रित होती है ।
(iii) बाढ़ ज्यादा तथा भयानक रूप से आती है,क्योंकि वर्षा का पानी तेजी से बहकर कम समय में एकत्रित हो जाता है ।
(iv) वन भूमि लगातार कम होती जा रही है जिसके कारन वन एवं वन्य जीव संसाधनों में भी कमी होती जा रही है।

6. शिफ्टिंग कृषि - प्राचीनकाल से कृषि कार्य में भूमि का उपयोग किया जा रहा है। एक स्थान पर लम्बे समय तक खेती करने के पश्चात उस स्थान की उर्वरा शक्ति समाप्त हो जाने के कारन दूसरे स्थानों की वन भूमि में उपस्थित वन भूमि को  काटकर वह पर खेती करना ही शिफ्टिंग कृषि कहलाता है । हमारे देश में बहुत जगहों पर ऐसा किया जाता है ।
इसके साथ-साथ उस स्थान के भूमि की उर्वरा शक्ति  समाप्त हो जाती है और मृदा अपरदन को बढ़ावा मिलता है ।

7.पर्यटन विस्तार - मानव की भौतिक वादी प्रवृत्ती के कारण पर्यटन हेतु विविध रूपों में वनों का विनाश हुआ है । इन पर्यटन स्थलों को विकसीत करने हेतु बड़े - बड़े वृक्षो को काट दिया जाता है जिसके कारण पर्यावरणीय परिवर्तनों को बल मिलता है।

8.बांधो का निर्माण -जल जीवन हेतु सर्वाधिक महत्वपूर्ण संसाधन है । बढ़ती हुई जनसँख्या आवर उद्योगीकरण के कारण  इन क्षेत्रों में जल की मांग बढ़ती जा रही है। दूसरे ओर वनों की अंधा-धुंध कटाई , पर्यावरण प्रदूषण, कल का दुरुपयोग, वर्षों का दर मेंकी कमी के कारण लगातार कमी हो रही है । बांध स्थापित किये जा रहे है , ताकि पानी को बचाया जा सके । बांध मानव निर्मित ऐसे विशाल जल संग्रह होये हैं, जहाँ पर नदियों, पहाड़ियों के जल प्रवाह मार्ग को रोककर जल का संग्रह किया जता है।

बांधो के कारण उत्पन्न समस्याएं - बांध हमारे लिए उपयोगी और लाभप्रद होने के साथ -साथ की प्रकार की समस्याएं भी उत्पन्न करती है-
(i) बांधो के निर्माण के लिए बहुत ज्यादा भागो के वृक्षो को काट जाता है।
(ii) बांध निर्माण क्षेत्र में वन्य जीवन के प्राकृतिक आवास नष्ट हो जाते है इसलिए उन्हें भोजन की कमी जो जाती है और वे नष्ट हो जाते है दोनों कारणों से जैव विविधता में कमी आ जाती है ।
(iii) बांध निर्माण स्थल में बसी जन जातियां बस्तियों के विस्थापन करना पड़ता है जिसके कारण उन्हर अत्यधिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है

9. युद्ध - प्रभुत्वकांक्षा के कारण एक समुदाय और दूसरे समुदाय पर , एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण होता रहा है । जिससे युद्ध की विभीषिका फैलती रही है । पहले मनुष्य पत्थरों एवं धातुओं से बने अश्त्रो का प्रयोग किया करता था , समय बीतने के साथ -साथ परिवर्तन हुआ है। आज कल युद्ध मरीन विभिन्न प्रकार के रासायनिक , जैविक और प्राकृतिक शस्शास्त्रो का उपयोग किया जता है ।
विश्व के अनेक ग्रंथो में विष-बुझे बाण, विषाक्त भोजन , विषैली औषधियों का उपयोग किये जाने का वर्णन किया गया है।
युद्ध का प्रभाव केवल युद्ध के समय तक सीमित न रहकर वर्षो तक बना रहता है।
10. खनन - भूमि में उपथित खनिज पदार्थों को बाहर निकलना खनन कहलाता है । खनिज संसाधनों का औद्योगिक क्रांति के महत्वपूर्ण स्थान रहा है।खनन दूर स्थानों मरीन होने के कारण तत्काल पर्यावरणीय संकट की  संभावना क्षीण होती थी।
कहना के कारण निम्न प्रकार के समस्याएं उत्पन्न होती हैं-
(i) खुले खनन की प्रक्रिया में खनिजो के कहना के पष्चात इसे खुला छोड़ देने के कारण उस स्थानों पर गड्ढे का निर्माण हो जाने से ये स्थान उपयोग के योग्य नही रहते । अमेरिका में ही लगभग एक लाख पचास हजार एकड़  उपजाऊ जमीन प्रतिवर्ष अनुपयोगी हो जाती है।
(ii) खनन के कारण भू-स्खलन में वृद्धि हो रही है। यही नही खनन के कारण छोड़े गए मलवे में वनस्पत्तियाँ नही उग पाती और वह जगह अनुपयोगी हो जाती है।
(iii) कोयलो कि खुली कदन की धूल से वहां वायु वायु प्रदूषित हो जाने का खतरा रहता है कभी - कभी वायु प्रादुशन भी अधिक हो जाती है।


(iv) पेट्रोलियम के खनन के कारण पाइप लाइनों द्वारा तेलशोधक कारखानों तक ले जाने के कारण सामान्यतः पाइप लाइनों में रिसाव हिने के कारण वह की वनस्पत्तियाँ नष्ट हो जाती है और भूमि प्रदूषित हो जाती है।पर्यावरण परिवर्तन एवं   संरक्षण
(ENVIROMENTAL CHANGES AND CONSERVATION)

परिचय (INTRODUCTION)
                                              प्राकृतिक  पर्यावरण का निर्माण अजैव और जैव घटकों से हैं घटको में मानव सर्वाधिक महत्वपूर्ण  तत्त्व है जो अपने क्रिया - कलापों से पर्यावरण को सर्वाधिक प्रभावित करता है । यह पर्यावरण का नियंत्रक, संचालक , रूपान्तरक और विनाशक है ईंन क्रियाओ को  रूप देने में देने में वह खुद पर्यावरण द्वारा बदलता रहता है। अपनी क्षमता, आवश्यकता और भावना के द्द्वारा वह अपने परिवेश की व्याख्या का नियमन करता है ।
                                   अतः स्पष्ट है कीपर्यावरणऔर परिस्थितिक की कार्य प्रणाली की स्वनियमनव्यवस्था द्वारा संचालित होती है । पर्यावरण तत्त्व पारिस्थितिक का नियंत्रण कर जीवन विकास के लिए आवश्यक परिस्थितियों का  निर्माण करते है ।यह व्यवस्था तब तक चलती रहती है जब तक पर्यावरण में   संतुलन बना है अर्थात  पर्यावरण का तत्त्व  अपने गुण के अनुशार आपस में तथा जैविक घटक के साथ परस्पर क्रिया करते है, लेकिन जब भौतिक या मानवीय कारणों से पर्यावरण के किसी किसी तत्त्व को क्षति पहुंचती हैं तो वह पहले स्वनियमन अंतर्गत संतुलित होने का प्रयास है, लेकिन जब उसके सहन सीमा से अधिक आघात प्रभाव होता है तो उसका संतुलन बिगड़ने लगता है  लगातार जब पर्यावरण के तत्वों की अवमानना होने लगती है तो पर्यावरण में परिवर्तन होने लगता है, जो की पारिस्थितिक का संतुलन है, क्योंकि पारिस्थितिकी पर्यावरण के सहयोग से कार्य है ।  पर्यावरण के हास्य जीवन की गुणवत्ता घटने लगती है तो विकाश की सारी प्रक्रिया उल्टी दिशा में मुड़ने लगती हैं, जो अवनति का मार्ग प्रशश्त करती है ।

पर्यावरण परिवर्तन
       (ENVIRONMENTAL CHANGES)

अपनी उन्नति को सतत बनाये रखने के लिए आदिकाल से  आधुनिक काल तक मानव समाज ने विविध प्रयोग किये है । मुलभुत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भौतिक संसाधनों का इस क्रम में पर्यावरण के प्रति किये गए अमैत्रीपूर्ण कार्य या प्रदूषण, वन विनाश, अधिक जनभार, संसाधनों का अधिक दोहन आदि स्वनियमजन्य क्षमता से अधिक हो जाता है तो उसके फलस्वरूप पर्यावरण के के तत्त्व पंगु होने लगते है ।इसका इसका सीधा प्रभाव पारिस्थितिकी पर पड़ता है । पारिस्थितिकी के असंतुलन से पर्यावरण के हास्य का आभाव होता है। स्पष्ट है कि पर्यावरण के हास्य के लिए मानव सबसे बड़ा कारक है । उदाहरण के लिए वनों की अंधा-धुंध कटाई , प्रोद्योगिक विकास, नगरीकरण आवर बढ़ती जनसंख्या के कारण पर्यावरण प्रदूषण घातक अवस्था तक पहुंच गया है । प्रदूषण से पर्यावरण के तत्व , वायु , जल, मृदा आदि स्वाभाविक गुण खो जा रहे हैं।
                                             परिवर्तन मानव के ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी विकास पर आधारित रहा है। जब तक प्रकृति के सहयोग से मानव अपने आवश्यकताओं की आपूर्ति करता रहा है तब तक पर्यावरण पारिस्थितिक संतुलित रही है, लेकिन वर्तमान में बढ़ती जनसंख्या , बढ़ता भौतिकवाद, उच्च तकनीकी और प्रकृति के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार के कारण भौतिक प्रगति की गति को इतना तीव्र बना दिया है कि उस का दुप्रभाव पड़ने लगा है । इसके सम्बन्ध में आज सोचना जरूरी है।

 पर्यावरण परिवर्तन के प्रमुख कारण
(Main Causes of Environmental Changes)

पर्यावरण में होने वाली परिवर्तन मुख्यतः निम्नलिखित कारणों से होता है-
जनसँख्या वृद्धि - मानव जनसँख्या वृद्धि ही पर्यावरण में होने वाले परिवर्तनों का प्रमुख कारण होती है । हमें ज्ञात है कि पृथ्वी का भू -भाग एवं प्राकृतिक संसाधन एक सीमित मात्रा में उपलब्ध है । चूंकि प्रकृति संसाधन एक निश्चित मात्रा में ही उपलब्ध है अतः जनसँख्या में वृद्धि जारी रहती है तो इन संसाधनो का उपयोग एवं मांग बढ़ती है । मानव जनसँख्या में वृद्धि से पर्यावरण निम्न प्रभाव पड़ते है -
1. प्राकृतिक संसाधनों में कमी आना ।
2. खाद्य समस्या उत्पन्न होना ।
3. वनों पेट्रोलियम, कोयला जैसे ईंधन प्रदायक सामग्रियों का कमी होना ।
4. प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग पश्चात शेष व्यर्थ पदार्थो की मात्रा में वृद्धि से पर्यावरण प्रदूषित होता है।
5. पर्यावरण प्रदूषण के कारण पारिस्थितिक असंतुलन उत्पन्न हो जाना ।
6. कृषि एवं अवाशिय भूमि की कमी होना ।
उपरोक्त सभी कारणों से पर्यावरण में परिवर्तन होने की संभावनाएं बढ़ती जावेंगी ।

(2)परिवहन(Transport)
मनुष्य आवागमन एवं अपने उपयोग की संगरियो को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने के लिए वाहनों का उपयोग करता है इन वाहनों में ईंधन के रूप में डीजल , पेट्रोल आदि का उपयोग किया जता है । इनके जलने से वाहनों का चालान हेतु ऊर्जा मिलने के साथ-साथ बहुत सी प्रदूषक गैसें वायुमंडल में छोड़ी जाती है। ईन गैसों के कारण पर्यावरण परिवर्तन का दर में वृद्धि होती जाती है।

3. जल कर्यों पर अतिक्रमण - मानव जनसंख्या में लगातार वृद्धि होने के कारण आवास एवं अन्य कार्य हेतु भूमि की उपलब्धता कम होती जा रही। इसी कारन मनुष्य तालाबों,नदियों, झीलों, पोखरों जैसे जलकायों पर अतिक्रमण कर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने लगा है ।

4. कृषि भूमि पर अतिक्रमण - बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण उद्योगों की स्थापना, नगरीकरण,गृह,निर्माण आदि में बढ़ोतरी हो रही है । इन कार्यो हेतु कृषि भूमि का उपयोग किया जा रहा है । इससे पौधो की संख्या में कमी होती जा रहा ।

5. वन भूमि पर अतिक्रमण - वनो से हमारा पुराण और गहरा संबंध है, इनके बिना हमारा जीवन संभव नहीं है ।
वनो की कटाई से उत्पन्न होने वाले प्रमुख दुष्परिणाम निम्नलिखित है -
(i) वनो की कटाई से भूमि कटाव बढ़ जाता है, क्योंकि वर्षा का जल पृथ्वी पर सीधे गिरकर तेजी से बिना रुके बहता है उपजाऊ   सतह को बहा के ले जाता है ।
(ii) वनो की कटाई से वर्षा कम तथा अनियंत्रित होती है ।
(iii) बाढ़ ज्यादा तथा भयानक रूप से आती है,क्योंकि वर्षा का पानी तेजी से बहकर कम समय में एकत्रित हो जाता है ।
(iv) वन भूमि लगातार कम होती जा रही है जिसके कारन वन एवं वन्य जीव संसाधनों में भी कमी होती जा रही है।

6. शिफ्टिंग कृषि - प्राचीनकाल से कृषि कार्य में भूमि का उपयोग किया जा रहा है। एक स्थान पर लम्बे समय तक खेती करने के पश्चात उस स्थान की उर्वरा शक्ति समाप्त हो जाने के कारन दूसरे स्थानों की वन भूमि में उपस्थित वन भूमि को  काटकर वह पर खेती करना ही शिफ्टिंग कृषि कहलाता है । हमारे देश में बहुत जगहों पर ऐसा किया जाता है ।
इसके साथ-साथ उस स्थान के भूमि की उर्वरा शक्ति  समाप्त हो जाती है और मृदा अपरदन को बढ़ावा मिलता है ।

7.पर्यटन विस्तार - मानव की भौतिक वादी प्रवृत्ती के कारण पर्यटन हेतु विविध रूपों में वनों का विनाश हुआ है । इन पर्यटन स्थलों को विकसीत करने हेतु बड़े - बड़े वृक्षो को काट दिया जाता है जिसके कारण पर्यावरणीय परिवर्तनों को बल मिलता है।

8.बांधो का निर्माण -जल जीवन हेतु सर्वाधिक महत्वपूर्ण संसाधन है । बढ़ती हुई जनसँख्या आवर उद्योगीकरण के कारण  इन क्षेत्रों में जल की मांग बढ़ती जा रही है। दूसरे ओर वनों की अंधा-धुंध कटाई , पर्यावरण प्रदूषण, कल का दुरुपयोग, वर्षों का दर मेंकी कमी के कारण लगातार कमी हो रही है । बांध स्थापित किये जा रहे है , ताकि पानी को बचाया जा सके । बांध मानव निर्मित ऐसे विशाल जल संग्रह होये हैं, जहाँ पर नदियों, पहाड़ियों के जल प्रवाह मार्ग को रोककर जल का संग्रह किया जता है।

बांधो के कारण उत्पन्न समस्याएं - बांध हमारे लिए उपयोगी और लाभप्रद होने के साथ -साथ की प्रकार की समस्याएं भी उत्पन्न करती है-
(i) बांधो के निर्माण के लिए बहुत ज्यादा भागो के वृक्षो को काट जाता है।
(ii) बांध निर्माण क्षेत्र में वन्य जीवन के प्राकृतिक आवास नष्ट हो जाते है इसलिए उन्हें भोजन की कमी जो जाती है और वे नष्ट हो जाते है दोनों कारणों से जैव विविधता में कमी आ जाती है ।
(iii) बांध निर्माण स्थल में बसी जन जातियां बस्तियों के विस्थापन करना पड़ता है जिसके कारण उन्हर अत्यधिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है

9. युद्ध - प्रभुत्वकांक्षा के कारण एक समुदाय और दूसरे समुदाय पर , एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण होता रहा है । जिससे युद्ध की विभीषिका फैलती रही है । पहले मनुष्य पत्थरों एवं धातुओं से बने अश्त्रो का प्रयोग किया करता था , समय बीतने के साथ -साथ परिवर्तन हुआ है। आज कल युद्ध मरीन विभिन्न प्रकार के रासायनिक , जैविक और प्राकृतिक शस्शास्त्रो का उपयोग किया जता है ।
विश्व के अनेक ग्रंथो में विष-बुझे बाण, विषाक्त भोजन , विषैली औषधियों का उपयोग किये जाने का वर्णन किया गया है।
युद्ध का प्रभाव केवल युद्ध के समय तक सीमित न रहकर वर्षो तक बना रहता है।
10. खनन - भूमि में उपथित खनिज पदार्थों को बाहर निकलना खनन कहलाता है । खनिज संसाधनों का औद्योगिक क्रांति के महत्वपूर्ण स्थान रहा है।खनन दूर स्थानों मरीन होने के कारण तत्काल पर्यावरणीय संकट की  संभावना क्षीण होती थी।
कहना के कारण निम्न प्रकार के समस्याएं उत्पन्न होती हैं-
(i) खुले खनन की प्रक्रिया में खनिजो के कहना के पष्चात इसे खुला छोड़ देने के कारण उस स्थानों पर गड्ढे का निर्माण हो जाने से ये स्थान उपयोग के योग्य नही रहते । अमेरिका में ही लगभग एक लाख पचास हजार एकड़  उपजाऊ जमीन प्रतिवर्ष अनुपयोगी हो जाती है।
(ii) खनन के कारण भू-स्खलन में वृद्धि हो रही है। यही नही खनन के कारण छोड़े गए मलवे में वनस्पत्तियाँ नही उग पाती और वह जगह अनुपयोगी हो जाती है।
(iii) कोयलो कि खुली कदन की धूल से वहां वायु वायु प्रदूषित हो जाने का खतरा रहता है कभी - कभी वायु प्रादुशन भी अधिक हो जाती है।


(iv) पेट्रोलियम के खनन के कारण पाइप लाइनों द्वारा तेलशोधक कारखानों तक ले जाने के कारण सामान्यतः पाइप लाइनों में रिसाव हिने के कारण वह की वनस्पत्तियाँ नष्ट हो जाती है और भूमि प्रदूषित हो जाती है।

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